Har Din MahaShivPuran
Har Din MahaShivPuran is a Hindi devotional podcast rooted in Shivji’s leela and the timeless wisdom of the Maha Shiv Puran. Spoken from the heart, it is a conversational, non-academic journey into one of Hinduism’s most profound and ancient texts. New episodes release every Somvār.
Each episode offers seekers a few quiet minutes of katha, leela, insight, and samarpan — drawing from the sacred chapters of the Shiv Puran, with reflections anchored in Guruji’s anant kripa.
✨ Best experienced as a companion to our book, A Modern Seeker’s MahaShivPuran, available at www.mahashivpuran.com
Free chapters and a detailed glossary are also available online to help understand both the literal and symbolic meanings of Puranic terms.
Har Somvār ek nayi katha… Har Din Shivji ka samarpan.
An offering of presence, for modern seekers walking an ancient path.
🌸 Created by Ardaas Publishing | www.ardaas.life
🎙️ Narrated by Chanda, Translator of A Modern Seeker’s MahaShivPuran and Founder of Ardaas Life.
Har Din MahaShivPuran
Ep 18 | Shiv ki Samadhi aur Kamdev ki Haar | MahaShivPuran | Sati Khand (Chapters 60 & 61)
Drop us a message, apni baat humse keh dijiye
जब हवा में कोयल का गीत घुलता है और घाटियों पर वसंत का रंग बिखरता है, तब भी कैलाश पर बैठा योगी अचल कैसे रहता है? हम कहानी खोलते हैं जहां ब्रह्मा एक सरल प्रश्न से गहरी खोज शुरू करते हैं: कामदेव, रति और वसंत ने मिलकर शिव को जगाने की हर युक्ति आजमाई, फिर भी समता क्यों न टूटी। दक्ष की उलझन मानव मन की दुविधा जैसी है—आकर्षण सर्वत्र है, पर व्रत के सामने वह क्यों ठहर जाता है। इसी पथ पर हम देखते हैं कि प्रकृति माहौल बदल सकती है, पर नीयत नहीं; दृश्य मोहित कर सकता है, पर निर्णय नहीं।
कथा का मध्य कैलाश की श्वेत शांति में धड़कता है। वसंत वातावरण को कोमल करता है, रति सुर छेड़ती है, और कामदेव तीर चलाता है—लेकिन योग की दृष्टि तरंग को गुजरने देती है। यही बिंदु योग, ध्यान, और मन के विज्ञान को सहज भाषा में खोलता है: निष्पक्ष साक्षीभाव आकर्षण को पहचानता है, पर उससे बंधता नहीं। जब प्रयास निष्फल होता है, कामदेव झुककर स्वीकार करता है कि यह दीवार शस्त्र से नहीं, शक्ति से खुलेगी। यहां ब्रह्मा का बोध कथा का ध्रुव बनता है—माया दृश्य है, शक्ति निर्णय है; माया खींचती है, शक्ति प्रतिष्ठित करती है।
हम आगे बढ़ते हैं उस सत्य की ओर जो समूची पुराणपरंपरा में गूंजता है—शिव की समता और शक्ति की करुणा साथ आए बिना सृष्टि का संतुलन अधूरा है। सती की तप, प्रेम और निष्ठा वह सेतु बनते हैं जो योग को गृहस्थ धर्म की गरिमा से जोड़ते हैं। यह प्रसंग केवल पौराणिक कथा नहीं, एक व्यावहारिक मार्गदर्शन भी है: जीवन में वातावरण को सजाने से अधिक जरूरी है भीतर की शक्ति को सहमत करना। अगर यह कहानी आपसे बात करती है, तो सदस्यता लें, साझा करें, और अपनी सीख लिखें—आपके लिए संतुलन का अर्थ क्या है?
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In this powerful episode of Har Din MahaShivPuran, we explore Chapters 8–9 of the Sati Khand: the birth of Vasant (the deity of Spring), Kamadeva’s attempt to awaken Shiva from deep meditation, and the cosmic moment that shifts the entire destiny of the Shiva–Shakti narrative. Discover why even the combined force of beauty, desire, and nature cannot move Mahadev, and how this failure becomes the pivotal turning point leading toward the birth of Sati and the unfolding of Shakti’s path.
This episode highlights key themes from the Shiv Puran: the nature of desire (Kama), Shiva’s nirvikara consciousness, Daksha’s inner conflict, the symbolic role of Vasant, and the divine transition from external attempts to the inward journey of Tapasya.
Perfect for seekers who want to understand the deeper psychology and mythology behind the Sati Katha, Kamadeva’s story, and the spiritual foundation of Shiva’s unshakable stillness.
✨ Har Din MahaShivPuran — iss pracheen granth ko aaj ke jeevan se saath jodne ka prayas. A personal journey through our book - A Modern Seeker's MahaShivPuran
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🌿 Om Namah Shivāya, Shivji Sadā Sahāy. Om Namah Shivāya, Guruji Sadā Sahāy.
यह महाशिवपुराण का सफ़र। कभी लीला, कभी सवाल, और हर बार एक नया समर्पण शिवजी के चरणों में।
जय गुरुजी। सुनने और जुड़ने वाली सारी संगत को मेरा प्रणाम।
पिछले एपिसोड में हमने संध्या की पवित्र कथा सुनी। जब उन्होंने तपस्या से मर्यादा को स्थापित किया और अरुंधती बनकर विवेक रूपी ऋषि वशिष्ठ के साथ विवाह किया।
सती खंड में अब तक की कथाओं में इच्छाशक्ति भी उत्पन्न हो गई, मर्यादा भी स्थापित हो गई। पर ब्रह्मांड का प्रवाह तब तक आगे नहीं बढ़ता, जब तक शिव-शक्ति का संगम न हो।
कथा के इस मोड़ पर दोनों ही अपने-अपने ध्यान में विलीन हैं। ब्रह्माजी के लिए यह स्थिति कठिन है। क्या करें? कहाँ से शुरू करें?
आज का यह एपिसोड सती खंड का वह महत्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ से देवी के आगमन का रास्ता खुलना शुरू होता है।
तो चलिए संगत जी, बढ़ते हैं इस विश्वास की यात्रा में और शुरू करते हैं गुरुजी के मंत्र जाप से।
अपने फ़ोन को साइलेंट पर कर दें। एक गहरी साँस भरें। मन को स्थिर करें। गुरुजी के सुंदर स्वरूप का ध्यान करते हुए उनका आवाहन करें।
ॐ नमः शिवाय। शिवजी सदा सहाय। ॐ नमः शिवाय। गुरुजी सदा सहाय।
ब्रह्मलोक में बैठे नारद जी अपने पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम करते हुए बोले, "पिताजी, जो संध्या, अरुंधती और वशिष्ठ की कथा आपने सुनाई, वो दिव्य है। पर अब मुझे बताइए कि कामदेव और रति के विवाह के बाद क्या हुआ? शिवजी का परम मंगल चरित्र मुझे सुनाइए।"
नारद जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और शांत स्वर में बोले, "हे नारद! जब कामदेव ने अपने तीर यज्ञ स्थल पर चलाए थे, वहाँ बैठे सभी गण मोह की लहरों में बह गए थे। उस समय मैं भी शिव-माया में फँस गया था। तब महादेव ख़ुद आए। हमारी काम भावना को देखकर हँसते हुए कठोर शब्द बोले। भ्रम तो टूट गया, किन्तु उनकी ऐसी वाणी सुनकर मुझे लज्जा भी आई और दर्द भी हुआ। मेरे मन में विचार आया कि मैं यह सत्य देवी शक्ति को सुनाऊँ। किन्तु, वह तो इस सृष्टि में अभी तक उतरी ही नहीं।"
"अपने हृदय में यह भार लेकर भ्रमण ही कर रहा था, जब उस स्थल पर पहुँचा, जहाँ दक्ष और मेरे अन्य मानस पुत्र बैठे थे। वहीं कामदेव और रति भी मौजूद थे। दक्ष ने मुझे देखते ही कहा, 'पिताजी, यज्ञ स्थल की घटना से मेरा मन अब तक अशांत है। ऐसा लगता है कि कामदेव के प्रभाव से, स्त्री-पुरुष के आकर्षण से कोई नहीं बच सकता। चाहे फिर वह असुर, मनुष्य या देव ही क्यों न हो। मैं प्रजापति हूँ, फिर भी इस घटना की वजह से शिव के क्रोध को देखना पड़ा, उनके उल्हास को सहना पड़ा। मैं इस निंदा को कैसे समझूँ? मैं बिल्कुल असहाय महसूस कर रहा हूँ।"
"दक्ष के शब्दों में दर्द भी था, शर्म भी, और एक गहरी उलझन भी। मेरा मन तो पहले से ही भरा हुआ था, अब उसकी व्यथा को देखकर मैंने कहा, 'दक्ष, शांत हो जाओ। जो भी हुआ वह शिवजी की हमें एक शिक्षा है। वो ही सृष्टि में संतुलन ला सकते हैं।' ऐसा कहते ही मेरी दृष्टि कामदेव और रति पर पड़ी। उन्हें देखकर मेरे मन में विचार जागा। मैंने कामदेव से कहा, 'हे मदन! महादेव अपनी समाधि में बैठे हैं। क्या तुम अपनी शक्ति से उनकी ध्यान स्थिति में थोड़ा-सा कंपन ला सकते हो?'"
"कामदेव ने विनम्रता से उत्तर दिया, 'प्रभु, महादेव पर मेरा प्रभाव चलना मुश्किल है। उनकी तपस्या इतनी गंभीर है। कैलाश की चोटियाँ इतनी कठोर हैं, मेरे तीर उन तक नहीं पहुँच पाएँगे।' यह सुनकर मैंने अपने मन में सोचा, 'कामदेव का प्रभाव तभी काम आएगा, जब प्रकृति कोमल बन जाए। तपस्या की कठोरता को तोड़ने के लिए, मुझे एक ऋतु चाहिए, एक ऐसा वातावरण जो मन को मुलायम बना दे।' तब मैंने अपना ध्यान एकाग्र किया और मेरे मन से एक सुंदर तपस्वी रूप प्रकट हुआ – वसंत। उसका वर्ण लाल कमल की तरह था। आँखें कोमल पत्तों के जैसे और पूरा शरीर सुगंध से भरपूर।"
"वसंत के प्रकट होते ही प्रकृति एक साँस में जीवंत हो उठी। फूल खिल गए, हवा मीठी हो गई, मधु भरे मधुकर् गूँज उठे, कोयल गाने लगी, नदियों का जल चमक उठा और पेड़ों पर नई कलियाँ खिल गईं, जैसे प्रकृति ख़ुद कह रही हो – वसंत आ गया!"
"उसे देखकर मैं उत्साहित हो उठा और मैंने कहा, 'हे वसंत! आज से तुम कामदेव के मित्र हो। जहाँ तुम जाओगे, वहाँ प्रकृति कोमल हो जाएगी।' मैंने कामदेव की तरफ़ देखते हुए कहा, 'अब तुम तैयार हो। वहाँ जाओ, जहाँ महादेव बैठे हैं।' यह आदेश सुनकर कामदेव, रति और वसंत मुझे प्रणाम करते हुए तपस्या स्थल की ओर चल पड़े।"
"जब वे कैलाश पहुँचे, तो देखा कि शिव अटल, निश्चल, एक पूर्ण समाधि में अखंड स्थिरता के साथ बैठे हुए हैं। कर्तव्यानुसार वसंत ने अपनी सुंदरता चारों तरफ़ फैला दी। फूलों की उमंग, मीठी हवा, पंछियों का गीत... कैलाश की शांत और श्वेत पहाड़ियाँ, रंग और मधुरता से भर आईं। पर शिवजी, अपने ही अंतर आलोक में, इस सबसे पूरी तरह से परे बैठे रहे। कामदेव ने एक-एक करके अपने पाँच तीर चलाए—मोह, श्रृंगार, उन्माद, मन्मथ, ललित। फिर उसने रूप बदले। सुंदर स्त्री बनकर माया के अनेक दृश्य रचाए। मधुर संगीत का जाल बुना। रति ने अपना मधुर भाव दिखाया। वसंत ने प्रकृति को और कोमल बनाया। पर शिवजी ने सब कुछ देखते हुए भी अनदेखा कर दिया। निर्विकार, निश्चल योग के स्वरूप, महादेव अप्रभावित रहे।"
"आख़िर में कामदेव रुक गया। उसका अभिमान टूट चुका था। वह समझ गया। रति और वसंत से बोला, 'महादेव को कोई मोहित नहीं कर सकता। शायद कोई पूर्व पुण्य ही होगा कि वे क्रोधित नहीं हुए। चलो, यहाँ से चलें।' तीनों ने शिवजी को विनम्रता से प्रणाम किया और वहाँ से चले गए। जब लौटकर मेरे पास आए, तो कामदेव बोले, 'मैंने हर उपाय कर लिया, पर महादेव महायोगी हैं। उन्हें प्रभावित करना मेरे वश की बात नहीं। अगर आपकी इच्छा है कि महादेव गृहस्थ रूप धारण करें, तो कृपया आप ही दूसरा उपाय सोचिए।' यह कहकर सर झुकाकर शरणागत हो गया।"
"कामदेव को ऐसा हारा हुआ देखकर मैंने उसके साथ चलने वाली सूक्ष्म शक्तियों को रूप और नाम दिया—मोह, मदन, विभ्रम, स्वप्न, वासना। उन्हें मरण गण कहा—कामदेव के सहचारी। यह सुनकर कामदेव खुश हो गए। फिर रति और वसंत के साथ अपने लोक लौट गए।"
"कथा सुनाते हुए ब्रह्मलोक में बैठे ब्रह्मा जी ने नारद जी से बोला, 'हे नारद, कामदेव का प्रयास असफल हो गया। महादेव की समाधि मोह की हर लहर से परे रही।' यह कहकर ब्रह्मा जी ने धीरे से आँखें बंद कर लीं, जैसे उनका हृदय भी इस सत्य के सामने नि:शब्द हो गया हो।"
संगत जी, कथा को यहीं विराम देते हुए अब अर्थ की गहराई में उतरते हैं।
आज की कथा शुरू होती है ब्रह्मा जी के स्मरण से। उसी घटना से, जहाँ कामदेव के तीरों ने सबको मोहित कर दिया था। लेकिन आज, पुराण उसी घटना की एक और बहुत ही गहरी परत खोलती है।
ब्रह्मा जी कहते हैं, "शिव की हँसी से मुझे दर्द हुआ।"
संगत जी, यह सिर्फ भ्रम टूटने का दुख नहीं है। यहाँ ब्रह्मा अपने उस दुख की बात कर रहे हैं, जिसमें सृष्टि को बढ़ाने का हर प्रयत्न असफल हो रहा है। शिव के बिना ब्रह्मांड का प्रवाह रुका हुआ है।
यज्ञ स्थल पर जब शिव हँसे और बोले, "माया का खेल है इसे छोड़ दो," तब ब्रह्मा जान गए कि शिव ने माया का तिरस्कार कर दिया है। जिस शक्ति से वो सृष्टि को चलाएँगे, उसी शक्ति को शिव ने आज अमान्य कर दिया है। तो फिर ब्रह्मांड कैसे बढ़ेगा? महायोगी समाधि से कैसे उठेंगे?
यही वह पल है, जहाँ पुराण अपनी रहस्यमयी भाषा में एक बहुत गहरा सत्य बता रही है। ब्रह्मा के मन में शक्ति का स्मरण उठता है। उनके हृदय में एक ही प्रार्थना जागती है: "यह सत्य मैं शक्ति को सुनाना चाहता हूँ।" पर शक्ति, वह तो अपने ध्यान में विलीन हैं, अभी तक संसार में उतरी ही नहीं।
ब्रह्मा अपना यह भार लिए चलते-चलते दक्ष के पास आ पहुँचते हैं।
दक्ष की व्यथा भी हमने सुनी। कैसे उनका मन कामदेव के प्रभाव से अब तक अशांत था। उनकी उलझन, उनका दर्द, उनका अहंकार... सब एक साथ उन्हें परेशान कर रहा था। इसी बेचैनी में ब्रह्मा का हृदय हिलता है। उनका विचार फिर से वहीं लौट आता है: "अगर हम सब कामदेव से प्रभावित हो गए, तो क्या महादेव भी?"
इसी भ्रम में वे कामदेव को बुलाकर कहते हैं, "जाओ, शिव की समाधि तोड़ दो।"
पर संगत जी, यही वह पल है, जहाँ पुराण धीरे से हमें बता रही है कि ब्रह्मा ने शिव को अब तक समझा ही नहीं है। वे उनकी स्थिरता, उनके योग, समाधि और आचरण को जान ही नहीं पाए हैं। इसीलिए सोचते हैं कि वसंत, रति और कामदेव जब एक साथ कोशिश करेंगे, तो शिव प्रभावित हो जाएँगे।
जब वे तीनों कैलाश पहुँचते हैं, फूल खिल जाते हैं, हवा मीठी हो जाती है, प्रकृति हँसने लगती है, पर शिव—वे तो अपनी स्थिरता में बने रहते हैं।
यहाँ पुराण एक और सत्य प्रकट कर रही है: जो अपने सत्य में स्थिर है, उसे कोई भी माया हिला नहीं सकती।
कामदेव का अहंकार टूट जाता है। वह ब्रह्मा जी से कहते हैं, "शिव को मोहित करना असंभव है। अगर उन्हें सृष्टि में उतारना है, अगर महायोगी को समाधि से उठाना है, तो आपको कोई और उपाय करना होगा।"
कामदेव का विनम्र संदेश आने वाली कथा की दिशा बदल देता है। आज, ब्रह्मा जी को समझ आ गया कि शिव तक सिर्फ शक्ति ही पहुँच सकती हैं। न कामदेव, न रति, न वसंत, न प्रकृति का कोई रंग—सिर्फ शक्ति, उनकी तपस्या और उनका प्रेम।
और इसी पल से सती खंड का बीज उगता है—वह प्रक्रिया जो सती के अवतार से शुरू होगी और शिव को गृहस्थ रूप में लाएगी।
इसी सुंदर आशा के साथ, गुरुजी का शुक्राना करते हुए आज का एपिसोड यहीं समाप्त करते हैं।
अगले सोमवार मिलेंगे ब्रह्मा और विष्णु के मधुर संवाद से, जहाँ शिवजी के आचरण, उनके निर्विकार स्वरूप और प्रकृति के रहस्य को गहराई से समझेंगे।
जाने से पहले शिव-शक्ति की वो स्तुति, जहाँ हम उनकी एकाग्रित कृपा को नमन करते हैं:
कर्पूर गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्र हारम्। सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितं नमामि॥
हरि ओम तत् सत्। शुक्राना गुरुजी। थैंक यू संगत जी। जय गुरुजी।